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वास्तव में यह ज्ञान काल ने श्री कृष्ण में प्रवेश करके बोला था।

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ब्रह्मपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी का बहुत बड़ा महत्व है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश दिया था। इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से भी प्रसिद्ध है। और इस एकादशी को “मोक्षदा एकादशी” कहते है.

पांडु: पांडव · कुंती · माद्री · युधिष्ठिर · भीम · अर्जुन · नकुल · सहदेव · द्रौपदी · अभिमन्यु  · परीक्षित · जनमेजय

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प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। वह गीता के उपदेश का विलक्षण रंगमंच प्रस्तुत करता है जिसमें श्रोता और वक्ता दोनों ही कुतूहल शांति के लिए नहीं वरन् जीवन की प्रगाढ़ समस्या के समाधान के लिये प्रवृत्त होते हैं। शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों की प्रभूत मात्रा से अर्जुन का व्यक्तित्व बना था और इन चारों के ऊपर दो गुण और थे एक क्षमा, दूसरी प्रज्ञा। बलप्रधान क्षात्रधर्म से प्राप्त होनेवाली स्थिति में पहुँचकर सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गया। जिस कर्तव्य के लिए वह कटिबद्ध हुआ था उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यही माना है कि मन की इस कायरता के कारण उसका जन्मसिद्ध स्वभाव उपहत या नष्ट हो गया था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करें, क्या न get more info करें, कुछ समझ में नहीं आता था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।

श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं है, बल्कि यह जीवन के विभिन्न पहलुओं का मार्गदर्शन करती है। इसकी शिक्षाएँ हमें न केवल आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँचाती हैं, बल्कि हमें एक सच्चे और निष्ठावान व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करती हैं। गीता का अध्ययन और पालन हमें जीवन में शांति, संतुष्टि, और सही दिशा प्रदान कर सकता है। यह हमें सिखाती है कि हर स्थिति में धैर्य और साहस बनाए रखते हुए सही रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए। गीता के उपदेशों को अपनाकर हम न केवल अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं, बल्कि समाज में भी सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।

भागवत शब्द में पंचमहाभूतों का संकेत है. भागवत= भ.अ.ग.व्.त.

१४)। वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़कर और दूसरा रहस्य नहीं है। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है।

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